गला-काट स्पध्र्दा के दौर से पत्रकारिता जगत गुजर रहा है। पत्र-पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन करना आसान कार्य नहीं है। बावजूद उसके मीडिया प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सबसे अधिक लोगों को रोजगार प्रदान कर रहा है। आज की इस भीषण महंगाई के दौर में पत्र-पत्रिकाओं को नियमित प्रकाशित करना अपने आप में प्रबंधक एवं मालिकों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि कही जाएगी। एक पत्र-पत्रिका को जीवित रखने के लिए उसके प्रकाशक को न जाने कितनी चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है। ऐसे में कैसे रह पायेगा प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ मजबूत? पत्रकारिता जगत से जुड़े लोगों व उनके परिवार को प्रशासन की ओर से जितनी सुविधाएं मिलनी चाहिए, वे उन्हें आज भी हासिल नहीं है। राज्य तथा केन्द्र सरकार को विभिन्न प्रभागों में सेवारत अधिकारियों को सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली तमाम सुविधाएं पहले दिन से ही मिल जाती हैं जबकि पत्रकारिता जगत से जुड़े लोगों को पूरा जिन्दगी गुजर जाने के बाद भी कुछ नहीं मिलता। मिलती है तो पुलिस की लाठियां और अपराधियों तथा भ्रष्टाचार में डूबे लोगों की गालियां। ऐसे समय पत्रकारों को संरक्षण हेतु व अपराधियों पर नकेल कसने हेतु कड़क कानून बनाने की आवश्यकता है। इस हेतु सरकार को आगे आने की जरूरत है। नॉन बेलेबल जुर्म दर्ज करने की मांग भी मीडिया में उठ रही है। यदि ऐसा कानून बनता है तो पत्रकार निर्भीक होकर अपना कार्य कर सकता है।
मैं गर कलम कर दूँ अपने दिल का सारा मंज़र, रूठ जाएगा खुदा भी अपनी दुनिया देखकर
Wednesday 11 September 2013
Wednesday 5 June 2013
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कारण महिला सशक्तिकरण हुआ है, मनरेगा के तहत महिलाओं को पुरूषों के बराबर वेतन दिया जाता है। इस योजना के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों के पलायन में कमी आई है और बैंकों में चार करोड़ खाते खोले गये हैं हालांकि उन्होने इस योजना को और भी बेहतर बनाने पर जोर दिया है। इस योजना का प्रारम्भ आठ वर्ष पहले ग्रामीणों को रोजगार देने के लिए किया गया था। सीधे तौर पर इससे आज आठ करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है जिसमें 47 प्रतिशत महिलाएं हैं।
गर्मी की वो कूल-कूल यादें
बचपन में गाँव जाने एवं गर्मी के दिनों का आनंद लेने के लिए बच्चे महीनों इंतजार करते थे। कब गर्मियों की छुट्टियाँ लगेंगी? कब सब इकट्ठे होंगे? टोकनियों से आम खाएँगे, तरबूज से तरबतर हो जाएँगे। पहले जब गर्मियों की छुट्टियां होती थीं तो बच्चे अपने नाना-नानी या दादा-दादी के पास जाया करते थे. पर आज प्रतियोगिता के दौर में यह हर किसी के लिए मुमकिन नहीं हो पाता. अब तो घर-स्कूल की पढ़ाई के बाद एक्स्ट्रा क्लासेज का भी बोझ है. और फिर छुट्टियों में ढेर सारा होमवर्क भी तो निपटाना होता है.हर उम्र के बच्चों को यह मौसम वैसा ही उल्लासभरा लगता है, जैसा कि बचपन में कभी लगा करता था !लेकिन बदलते दौर में बच्चों की छुट्टियों के मायने भी बदल गये हैं. इस एक महीने की छुट्टी में जहां बच्चे ज्यादा से ज्यादा मस्ती कर लेना चाहते हैं, वहीं मम्मी-पापा का ध्यान इस बात पर ज्यादा होता है कि उनकी छुट्टियां यूं ही बर्बाद न हों. बच्चे धूप में न खेलें और साथ ही समर वेकेशन में कुछ न कुछ सीखें, जो कि समय की मांग भी है. पहले गाँव में गर्मी भी ऊबाऊ नहीं आनंददायी होती थी। गोबर से लीपा कमरा, लकड़ी, खप्पर, कवेलू से टपी छत। जो बहुत गर्मी पड़ने पर भी कम तपती थी। आसपास ईंट व गोबर की दीवारें रहतीं, जिनसे गर्मी घर में प्रवेश नहीं करती थी। शहरों की तरह तपने वाले सीमेंट-क्रांकीट के घर नहीं होते थे।गाँवों में आज जैसी पानी की किल्लत नहीं थी। शहरों में पीने-नहाने का पानी रोज नहीं मिलता है, जबकि गाँव में नदी एवं कुओं में 12 महीने पानी उपलब्ध था।गाँव की नदी में स्वीमिंग पूल से कहीं अधिक आनंद था।रात तो और अच्छी लगती छत पर खुले में बिस्तर लगाने से बहुत ही ठंडी हवा लगती थी। मच्छर नाम की तो तब कोई बला नहीं थी,छत पर अटकमटक, अंताक्षरी और इसी तरह के खेल चलते। दादी माँ प्रेरणादायी वार्ताएँ सुनाती थीं।दादा ताड़ने वाली कहानियाँ सुनाते थे। बच्चे दिन भर खेतों, तालाबों, पोखरों, में खेलते व मछली पकड़ने थे. पहले देवरानी-जेठानी में बहनों जैसा प्यार था। माँ की अनुपस्थिति में काकी या दादी अपना स्तनपान तक शिशु को करा देती थीं। एक-एक घर में चार से पाँच बहुएँ रहती थीं और आज भी रहती हैं। बहुत बड़ा परिवार होने पर एक के दो, दो के चार घर होना स्वाभाविक है, पर लड़ाई-झगड़े, राजनीति वाली कोई बात ही नहीं होती थी। बेटे-बहू का विवाद होने पर माँ अपने बेटे को डाँटती थी और बहू का पक्ष लेकर उसे दुलार करती थी।उन दिनों में "गुल्ली-कौड़ी" का खेल बहुत प्रचलित था ! इसके अतिरिक्त "लुका-छिपी", कबड्डी, गिल्ली-डंडा और कई प्रकार के खेलों में हम उम्र साथियों के साथ लगे रहने में काफी मज़ा आता था. न खाने की सुध न नहाने की और न ही डांट-डपट का भय.! छुट्टियों के दरमियान आम, जामुन, लीची आदि जैसे ललचाने वाले बार्षिक फलों को तोड़ के खाने का एक अलग आनंद मिलता था .जेठ की दुपहरी में भी, लू की ना तों परवाह होती ना ही अलसाये सोने की चाह. वहीँ आज के बच्चे मशीनों के बिना नहीं रह सकते वे कहानियाँ नहीं पसंद करते उन्हें कार्टून देखना पसंद है ,उन्हें बाहर खेलना नहीं अच्छा लगता विडिओ गेम खेलना कंप्यूटर से दिन भर चिपके रहना पसंद है
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